ads

ghalib jise kahte hain urdu ka hi shayar tha urdu pe sitam dha kar ghalib pe karam kyon hai

ग़ालिब जिसे कहते हैं उर्दू ही का शायर था


ghalib jise kahte hain urdu ka hi shayar tha urdu pe sitam dha kar ghalib pe karam kyon hai
sahir ludhianvi

जहां तक उर्दू का सवाल है, हम एक महत्त्वपूर्ण घटना का जिक्र करके उर्दुभाषियों की बेचैनी और उनके दर्द को पाठकों के सामने रखना चाहेंगे। बढ़ती दूरियां, गहराती दरार नामक अपनी पुस्तक में रफ़ीक़ जकारिया ने एक घटना का हवाला देते लिखा है, '1969 में फखरुद्दीन अली अहमद भारत सरकार को इस बात पर राजी करने में कामयाब हो गये कि मिर्ज़ा ग़ालिब की जन्म शताब्दी अखिल भारतीय स्तर पर मनायी जाये। परिणामस्वरूप, बंबई में एक विशाल आम समारोह आयोजित किया गया।। केंद्र और राज्य के अनेक गणमान्य व्यक्तियों ने समारोह में हिस्सा लिया। उसमें भाग लेने वाले प्रमुख उर्दू लेखकों और शायरों में लोकप्रिय साहिर लुधियानवी भी थे। जब शांत, विनम्र साहिर अपने सामान्य गंभीर व्यक्तित्व के साथ अपनी रचना पढ़ने के लिए खड़े हुए तो तालियों की प्रचंड गड़गड़ाहट हुई, सभी ने बड़ी उम्मीद के साथ सुनना शुरू किया कि अब उर्दू कविता के शिखरपुरुष से मिर्ज़ा ग़ालिब को श्रद्धांजलि अर्पित करने वाली मार्मिक रचना सुनने को मिलेगी। लेकिन जब साहिर ने रचना पढ़नी शुरू की और पंक्ति दर पंक्ति पढ़ते गये तो सभी दंग रह गये, मंच पर बैठे मंत्री, अधिकारी धक् रह गये और विशाल जनसमुदाय उछल पड़ा। साहिर ने सुनाया 


इसे भी पढ़े- तू भी राणा का बेटा है फेंक जहाँ तक भाला जाए |



इक्कीस बरस गुज़रे आज़ादी-ए-कामिल को,

तब जाके कहीं हम को ग़ालिब का ख़्याल आया ।

तुर्बत है कहाँ उसकी, मसकन था कहाँ उसका,

अब अपने सुख़न परवर ज़हनों में सवाल आया ।

सौ साल से जो तुर्बत चादर को तरसती थी,

अब उस पे अक़ीदत के फूलों की नुमाइश है ।

उर्दू के ताल्लुक से कुछ भेद नहीं खुलता,

यह जश्न, यह हंगामा, ख़िदमत है कि साज़िश है ।

जिन शहरों में गुज़री थी, ग़ालिब की नवा बरसों,

उन शहरों में अब उर्दू बे नाम-ओ-निशां ठहरी ।

आज़ादी-ए-कामिल का ऎलान हुआ जिस दिन,

मातूब जुबां ठहरी, गद्दार जुबां ठहरी ।

जिस अहद-ए-सियासत ने यह ज़िन्दा जुबां कुचली,

उस अहद-ए-सियासत को मरहूमों का ग़म क्यों है ।

ग़ालिब जिसे कहते हैं उर्दू ही का शायर था,

उर्दू पे सितम ढा कर ग़ालिब पे करम क्यों है ।

ये जश्न ये हंगामे, दिलचस्प खिलौने हैं,

कुछ लोगों की कोशिश है, कुछ लोग बहल जाएँ ।

जो वादा-ए-फ़रदा, पर अब टल नहीं सकते हैं,

मुमकिन है कि कुछ अर्सा, इस जश्न पर टल जाएँ ।

यह जश्न मुबारक हो, पर यह भी सदाकत है,

हम लोग हक़ीकत के अहसास से आरी हैं ।

गांधी हो कि ग़ालिब हो, इन्साफ़ की नज़रों में,

हम दोनों के क़ातिल हैं, दोनों के पुजारी हैं

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ